Thursday, January 15, 2015

मेरा बचपन ( आत्मकथा )

बात उन दिनो की है.. जब गाँव मे बचपन बीत रहा था..
मैं ओर मेरा परम मित्र ओर चचेरा भाई संजय..
अब तो फ़ेसबुक पे नाम भी बदल लिया है..
संजय अब बन गया है आकांशु अरोड़ा..
हहेहेहेहहेः..

सुबह से शाम तक साथ रहना..
वो स्कूल मे एक क्लास मे एक साथ बैठना..
शायद 4 की उमर रही होगी तब हमारी
मुझे आज भी याद आता है..
वो भुआ के घर जाकर गन्ने माँगना..
तुम्हारा भुआ से कहना.. एहनु वी एक गन्ना दे दो..
ओर फूफा जी का मुझे गन्ने के साथ लड्डू देना..
मुझे आज भी याद आता है..
वो ह्मारे चबूतरे पे बैठकर गन्ने चूसना ..
वो मेरे घर मे लगे गेंदे के फूल..
वो खेत मे जाकर बेर तोड़ना
मुझे आज भी याद आता है..
वो शाम को गाँव घूमने जाना
तुम्हे याद है.. एक बार तुम मुझे सरकारी स्कूल के पास छोड़कर अकेले घर आ गये थे.. ओर मेरे घर वालो के पूछने पे की सौरभ हाँ है.. तुम्हारा जवाब..
हाहहहाहा...
हाहहहहाहा..
तुमने बहुत ही भोलेपन से कहा..
सौरभ तो मर गया..
हहेहेहेहहे..
मुझे आज भी याद आता है..
वो मेरे खेत मे मेरी 2*2 की क्यारी
ओर उसमे उगाए मेरी 8-10 प्रकार की सब्जियाँ
ओर रोज शाम को अपना खेत देखने जाना..
मुझे आज भी याद आता है..
तुम्हे याद है.. एक बार हमने एक कुत्ते के पिल्ले को मेरे घर के सामने बबूल के पेड़ के नीचे बाँध दिया था..
ओर शाम तक उसे खिलाते पिलाते रहे..
हुउऊुुुुुुउउ..
ह्मारा डोगीइिईईईईईईई
हहेहहे
मुझे आज भी याद आता है..
शायद किस्मत को हमारा बचपन इतना ही मंजूर था.. तुम शहर आ गये..
.
.
ओर वो गाँव के बचपन के दिन वही ख़त्म ..
शहर की तेज रफ़्तार जिंदगी मे हमारा बचपन खो गया....
आज भी तलाश करता हूँ अपने अंदर वो नन्हा सा बच्चा...
किसी को मिले तो ज़रूर बताना..
दोस्तो पहली बार अपनी जिंदगी के कुछ पन्ने खोल रहा हूँ. .
अपनी प्रतिक्रिया देते रहें..
आपका मित्र सौरभ..

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